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श्रीदुर्गा सप्तशती आठवाँ अध्याय

श्रीदुर्गा सप्तशती आठवाँ अध्याय हिंदी में
श्रीदुर्गा सप्तशती आठवाँ अध्याय हिंदी में

रक्तबीज - वध

ऋषि कहते हैं - चण्ड और मुण्ड नामक दैत्यों के मारे जाने तथा बहुत-सी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यों के राजा प्रतापी शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्यों की सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिये कूच करने की आज्ञा दी। वह बोला - 'आज उदायुध नाम के छियासी दैत्य सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थान करें। कम्बु नाम वाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे हुए यात्रा करें। पचास कोटिवीर्य-कुल के और सौ धौम्र-कुल के असुर सेनापति मेरी आज्ञा से सेना सहित कूच करें। कालक, दौर्हृद, मौर्य और कालकेय असुर भी युद्ध के लिये तैयार हो मेरी आज्ञा से तुरंत प्रस्थान करें'। भयानक शासन करने वाला असुर राज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा दे सहस्रों बड़ी-बड़ी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थित हुआ। 

उसकी अत्यन्त भयंकर सेना आती देख चण्डिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया। राजन्! तदनन्तर देवी के सिंह ने भी बड़े जोर-जोर से दहाड़ना आरम्भ किया, फिर अम्बिका ने घण्टे के शब्द से उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया। धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घण्टे की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठीं। उस भयंकर शब्द से काली ने अपने विकराल मुख को और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुई। 

उस तुमुल नाद को सुनकर दैत्यों की सेनाओं ने चारों ओर से आकर चण्डिका देवी, सिंह तथा कालीदेवी को क्रोधपूर्वक घेर लिया। राजन्! इसी बीच में असुरों के विनाश तथा देवताओं के अभ्युदय के लिये ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ, जो अत्यन्त पराक्रम और बल से सम्पन्न थीं, उनके शरीरों से निकलकर उन्हीं के रूप में चण्डिका देवी के पास गयीं। 

जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेश-भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही, साधनों से सम्पन्न हो उसकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिये आयी। सबसे पहले हंसयुक्त विमानपर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमण्डलु से सुशोभित ब्रह्माजी की शक्ति उपस्थित हुई, जिसे 'ब्रह्माणी' कहते हैं। महादेवजी की शक्ति वृषभ पर आरूढ़ हो हाथों में श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किये महानाग का कङ्कण पहने, मस्तक में चन्द्ररेखा से विभूषित हो वहाँ आ पहुँची। 

कार्तिकेयजी की शक्तिरूपा जगदम्बिका उन्हीं का रूप धारण किये श्रेष्ठ मयूर पर आरूढ़ हो हाथ में शक्ति लिये दैत्यों से युद्ध करने के लिये आयीं। इसी प्रकार भगवान् विष्णु की शक्ति गरुड़ पर विराजमान हो शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष तथा खड्ग हाथ में लिये वहाँ आयी। अनुपम यज्ञवाराह का रूप धारण करने वाले श्रीहरि की जो शक्ति है, वह भी वाराह शरीर धारण करके वहाँ उपस्थित हुई। नारसिंही शक्ति भी नृसिंह के समान शरीर धारण करके वहाँ आयी। उसकी गर्दन के बालों के झटके से आकाश के तारे बिखरे पड़ते थे। इसी प्रकार इन्द्र की शक्ति वज्र हाथ में लिये गजराज ऐरावत पर बैठकर आयी। उसके भी सहस्र नेत्र थे। इन्द्र का जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था। तदनन्तर उन देव शक्तियों से घिरे हुए महादेवजी ने चण्डिका से कहा- 'मेरी प्रसन्नता के लिये तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो'। 

तब देवी के शरीर से अत्यन्त भयानक और परम उग्र चण्डिका-शक्ति प्रकट हुई, जो सैकड़ों गीदड़ियों की भाँति आवाज करने वाली थी। उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटा वाले महादेवजी से कहा- 'भगवन्! आप शुम्भ-निशुम्भ के पास दूत बनकर जाइये। और उन अत्यन्त गर्वीले दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दोनों से कहिये। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्ध के लिये वहाँ उपस्थित हों उनको भी यह सन्देश दीजिये' - 'दैत्यो! यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल को लौट जाओ। इन्द्रको त्रिलोकी का राज्य मिल जाय और देवता यज्ञभाग का उपभोग करें। यदि बल के घमंड में आकर तुम युद्ध की अभिलाषा रखते हो तो आओ मेरी शिवाएं (योगिनियाँ) तुम्हारे कच्चे मांस से तृप्त हों। 

चूँकि उस देवी ने भगवान् शिव को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिये वह 'शिवदूती' के नाम से संसार में विख्यात हुई। वे महादैत्य भी भगवान् शिव के मुँह से देवी के वचन सुनकर क्रोध में भर गये और जहाँ कात्यायनी विराजमान थीं, उस ओर बढ़े। तदनन्तर वे दैत्य अमर्ष में भरकर पहले ही देवी के ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्रों की वृष्टि करने लगे। तब देवी ने भी खेल खेल में ही धनुष की टंकार की और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े बाणों द्वारा दैत्यों के चलाये हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसों को काट डाला।

 फिर काली उनके आगे होकर शत्रुओं को शूल के प्रहार से विदीर्ण करने लगी और खट्वाङ्ग से उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमि में विचरने लगी। ब्रह्माणी भी जिस-जिस ओर दौड़ती, उसी उसी और अपने कमण्डलु का जल छिड़क कर शत्रुओं के ओज और पराक्रम को नष्ट कर देती थी। माहेश्वरी ने त्रिशूल से तथा वैष्णवी ने चक्र से और अत्यन्त क्रोध में भरी हुई कुमार कार्तिकेय की शक्ति ने शक्ति से दैत्यों का संहार आरम्भ किया। 

इन्द्रशक्ति के वज्रप्रहार से विदीर्ण हो सैकड़ों दैत्य-दानव रक्त की धारा बहाते हुए पृथ्वी पर सो गये। वाराही शक्ति ने कितनों को अपनी थूथुन की मार से नष्ट किया, दाढ़ों के अग्र भाग से कितनों की छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य उसके चक्र की चोट से विदीर्ण होकर गिर पड़े। नारसिंही भी दूसरे दूसरे महादैत्यों को अपने नखों से विदीर्ण करके खाती और सिंहनाद से दिशाओं एवं आकाश को गुंजाती हुई युद्ध क्षेत्र में विचरने लगी। 

कितने ही असुर शिवदूती के प्रचण्ड अट्टहास से अत्यन्त भयभीत हो पृथ्वी पर गिर पड़े और गिरने पर उन्हें शिवदूती ने उस समय अपना ग्रास बना लिया।

इस प्रकार क्रोध में भरे हुए मातृगणों को नाना प्रकार के उपायों से बड़े-बड़े असुरों का मर्दन करते देख दैत्य सैनिक भाग खड़े हुए। मातृगणों से पीड़ित दैत्यों को युद्ध से भागते देख रक्तबीज नामक महादैत्य क्रोध में भरकर युद्ध करने के लिये आया। उसके शरीर से जब रक्त की बूँद पृथ्वी पर गिरती, तब उसी के समान शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वी पर पैदा हो जाता। महासुर रक्तबीज हाथ में गदा लेकर इन्द्रशक्ति के साथ युद्ध करने लगा। तब ऐन्द्री ने अपने वज्र से रक्तबीज को मारा। वज्र से घायल होने पर उसके शरीर से बहुत-सा रक्त चूने लगा और उससे उसी के समान रूप तथा पराक्रमवाले योद्धा उत्पन्न होने लगे। 

उसके शरीर से रक्त की जितनी बूँदें गिरीं, उतने ही पुरुष उत्पन्न हो गये। वे सब रक्तबीज के समान ही वीर्यवान्, बलवान् तथा पराक्रमी थे। वे रक्त से उत्पन्न होने वाले पुरुष भी अत्यन्त भयंकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए वहाँ मातृगणों के साथ घोर युद्ध करने लगे। पुनः वज्र के प्रहार से जब उसका मस्तक घायल हुआ, तब रक्त बहने लगा और उससे हजारों पुरुष उत्पन्न हो गये। वैष्णवी ने युद्ध में रक्तबीज पर चक्र का प्रहार किया तथा ऐन्द्री ने उस दैत्यसेनापति को गदा से चोट पहुँचायी।

वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा और उससे जो उसी के बराबर आकार वाले सहस्रों महादैत्य प्रकट हुए, उनके द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से महादैत्य रक्तबीज को घायल किया। क्रोध में भरे हुए उस महादैत्य रक्तबीज ने भी गदा से सभी मातृ-शक्तियों पर पृथक्-पृथक् प्रहार किया। शक्ति और शूल आदि से अनेक बार घायल होने पर जो उसके शरीर से  रक्त की धारा पृथ्वी पर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए। इस प्रकार उस महादैत्य के रक्त से प्रकट हुए असुरों द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। इससे उन देवताओं को बड़ा भय हुआ। देवताओं को उदास देख चण्डिका ने काली से शीघ्रतापूर्वक कहा - 'चामुण्डे! तुम अपना मुख और भी फैलाओ। तथा मेरे शस्त्रपात से गिरने वाले रक्तबिन्दुओं और उनसे उत्पन्न होने वाले महादैत्यों को तुम अपने इस उतावले मुख से खा जाओ। इस प्रकार रक्त से उत्पन्न होने वाले महादैत्यों का भक्षण करती हुई तुम रण में विचरती रहो। ऐसा करने से उस दैत्य का सारा रक्त क्षीण हो जाने पर वह स्वयं भी नष्ट हो जायगा। उन भयंकर दैत्यों को जब तुम खा जाओगी, तब दूसरे नये दैत्य उत्पन्न नहीं हो सकेंगे।' 

काली से यों कहकर चण्डिका देवी ने शूल से रक्तबीज को मारा और काली ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया। तब उसने वहाँ चण्डिका पर गदा से प्रहार किया। किंतु उस गदापात ने देवी को तनिक भी वेदना नहीं पहुँचायी। रक्तबीज के घायल शरीर से बहुत-सा रक्त गिरा। किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यों ही चामुण्डा ने उसे अपने मुख में ले लिया। रक्त गिरने से काली के मुख में जो महादैत्य उत्पन्न हुए, उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीज का रक्त भी पी लिया। तदनन्तर देवी ने रक्तबीज को, जिसका रक्त चामुण्डा ने पी लिया था, वज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि आदि से मार डाला। राजन्! इस प्रकार शस्त्रों के समुदाय से आहत एवं रक्तहीन हुआ महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा। नरेश्वर! इससे देवताओं को अनुपम हर्ष की प्राप्ति हुई। और मातृगण उन असुरों के रक्तपान के मद से उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगा।

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में 'रक्तबीज-वध' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

पाँचवा दिन

श्रीदुर्गा सप्तशती सातवाँ अध्याय हिंदी में
श्रीदुर्गा सप्तशती सातवाँ अध्याय हिंदी में

५. स्कन्दमाता

सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ॥

माँ दुर्गा के पाँचवे स्वरूप को स्कन्दमाता कहा जाता है। ये भगवान स्कन्द "कुमार कार्तिकेय" के नाम
से भी जाने जाते हैं। इन्हीं भगवान स्कन्द अर्थात् कार्तिकेय की माता होने के कारण माँ दुर्गा के इस पाँचवे
स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना नवरात्रि पूजा के पाँचवे दिन की जाती है इस दिन साधक का मन "विशुद्ध" चक्र में स्थित रहता है। इनका वर्ण शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इसलिए इन्हें प‌द्मासन देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। नवरात्र-पूजन के पाँचवे दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्त्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित रहने वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाएँ एवम् चित वृतियों का लोप हो जाता है ।

श्रीदुर्गा सप्तशती सातवाँ अध्याय

चण्ड - मुण्ड का वध

ऋषि कहते हैं - तदनन्तर शुम्भ की आज्ञा पाकर वे चण्ड-मुण्ड आदि दैत्य चतुरङ्गिणी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो चल दिये। फिर गिरिराज हिमालय के सुवर्णमय ऊँचे शिखर पर पहुँचकर उन्होंने सिंह पर बैठी देवी को देखा। वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं। उन्हें देखकर दैत्य लोग तत्परता से पकड़ने का उद्योग करने लगे। किसी ने धनुष तान लिया, किसी ने तलवार सँभाली और कुछ लोग देवी के पास आकर खड़े हो गये। तब अम्बिका ने उन शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया। 

उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया। ललाट में भौहें टेढ़ी हो गयीं और वहाँ से तुरंत विकरालमुखी काली प्रकट हुई, जो तलवार और पाश लिये हुए थीं। वे विचित्र खट्वाङ्ग धारण किये और चीते के चर्म की साड़ी पहने नर-मुण्डों की माला से विभूषित थीं। उनके शरीर का मांस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढाँचा था, जिससे वे अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थीं। 

उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं। उनकी आँखें भीतर को धँसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजा रही थीं। बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई वे कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों की उस सेना पर टूट पड़ीं और उन सबको भक्षण करने लगीं। वे पार्श्वरक्ष कों, अङ्कुशधारी महावतों, योद्धाओं और घण्टा सहित कितने ही हाथियों को एक ही हाथ से पकड़कर मुँह में डाल लेती थीं। 

इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथि के साथ रथी सैनिकों को मुँह में डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूप से चबा डालती थीं। किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसी का गला दबा देतीं, किसी को पैरों से कुचल डालतीं और किसी को छाती के धक्के से गिराकर मार डालती थीं। वे असुरों के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुँह से पकड़ लेतीं और रोष में भरकर उनको दाँतों से पीस डालती थीं।

देवी काली ने बलवान् एवं दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनों को मार भगाया। कोई तलवार के घाट उतारे गये, कोई खट्वाङ्ग से पीटे गये और कितने ही असुर दाँतों के अग्रभाग से कुचले जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए। इस प्रकार देवी ने असुरों की उस सारी सेना को क्षणभर में मार गिराया। यह देख चण्ड उन अत्यन्त भयानक कालीदेवीकी ओर दौड़ा। तथा महादैत्य मुण्ड ने भी अत्यन्त भयंकर बाणों की वर्षा से तथा हजारों बार चलाये हुए चक्रों से उन भयानक नेत्रों वाली देवी को आच्छादित कर दिया। वे अनेकों चक्र देवी के मुख में समाते हुए ऐसे जान पड़े, मानो सूर्य के बहुतेरे मण्डल बादलों के उदर में प्रवेश कर रहे हों। 

तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने अत्यन्त रोष में भरकर विकट अट्टहास किया। उस समय उनके विकराल वदन के भीतर कठिनता से देखे जा सकने वाले दाँतों की प्रभा से वे अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थीं। देवी ने बहुत बड़ी तलवार हाथ में ले 'हं' का उच्चारण करके चण्ड पर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला। चण्ड को मारा गया देखकर मुण्ड भी देवी की ओर दौड़ा। तब देवी ने रोष में भरकर उसे भी तलवार से घायल करके धरती पर सुला दिया। महापराक्रमी चण्ड और मुण्ड को मारा गया देख मरने से बची हुई बाकी सेना भय से व्याकुल हो चारों ओर भाग गयी।

 तदनन्तर काली ने चण्ड और मुण्ड का मस्तक हाथ में ले चण्डिका के पास जाकर प्रचण्ड अट्टहास करते हुए कहा - 'देवि! मैंने चण्ड और मुण्ड नामक इन दो महापशुओं को तुम्हें भेंट किया है। अब युद्धयज्ञ में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना'।

ऋषि कहते हैं - वहाँ लाये हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक महादैत्यों को देखकर कल्याणमयी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा - 'देवि! तुम चण्ड और मुण्ड को लेकर मेरे पास आयी हो, इसलिये संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी'।

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में 'चण्ड-मुण्ड-वध' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ।


श्रीदुर्गा सप्तशती छठा अध्याय

श्रीदुर्गा सप्तशती छठा अध्याय हिंदी में
श्रीदुर्गा सप्तशती छठा अध्याय हिंदी में

धूम्र लोचन - वध

ऋषि कहते हैं -देवी का यह कथन सुनकर दूत को बड़ा अमर्ष हुआ और उसने दैत्यराज के पास जाकर सब समाचार विस्तार पूर्वक कह सुनाया। दूत के उस वचन को सुनकर दैत्यराज कुपित हो उठा और दैत्यसेनापति धूम्रलोचन से बोला। 'धूम्रलोचन! तुम शीघ्र अपनी सेना साथ लेकर जाओ और उस दुष्टा के केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ। उसकी रक्षा करने के लिये यदि कोई दूसरा खड़ा हो तो वह देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व ही क्यों न हो, उसे अवश्य मार डालना'।

ऋषि कहते हैं - शुम्भ के इस प्रकार आज्ञा देने पर वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हजार असुरों की सेना को साथ लेकर वहाँ से तुरंत चल दिया। वहाँ पहुँचकर उसने हिमालय पर रहने वाली देवी को देखा और ललकारकर कहा- 'अरी! तू शुम्भ-निशुम्भ के पास चल। यदि इस समय प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामी के समीप नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक चोटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले चलूँगा'।

देवी बोलीं - तुम्हें दैत्यों के राजा ने भेजा है, तुम स्वयं भी बलवान् हो और तुम्हारे साथ विशाल सेना भी है; ऐसी दशा में यदि मुझे बलपूर्वक ले चलोगे तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ?

ऋषि कहते हैं - देवी के यों कहने पर असुर धूम्रलोचन उनकी ओर दौड़ा, तब अम्बिका ने 'हुं' शब्द के उच्चारणमात्र से उसे भस्म कर दिया। फिर तो क्रोध में भरी हुई दैत्यों की विशाल सेना और अम्बिका ने एक-दूसरे पर तीखे सायकों, शक्तियों तथा फरसों की वर्षा आरम्भ की। इतने में ही देवी का वाहन सिंह क्रोध में भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में कूद पड़ा। उसने कुछ दैत्यों को पंजों की मार से, कितनों को अपने जबड़ों से और कितने ही महादैत्यों को पटककर ओठ की दाढ़ों से घायल करके मार डाला। उस सिंह ने अपने नखों से कितनों के पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनों के सिर धड़ से अलग कर दिये। कितनों की भुजाएँ और मस्तक काट डाले तथा अपनी गर्दन के बाल हिलाते हुए उसने दूसरे दैत्यों के पेट फाड़कर उनका रक्त चूस लिया। 

अत्यन्त क्रोध में भरे हुए देवी के वाहन उस महाबली सिंह ने क्षण भर में ही असुरों की सारी सेना का संहार कर डाला। शुम्भ ने जब सुना कि देवी ने धूम्रलोचन असुर को मार डाला तथा उसके सिंह ने सारी सेना का सफाया कर डाला, तब उस दैत्यराज को बड़ा क्रोध हुआ। उसका ओठ काँपने लगा। उसने चण्ड और मुण्ड नामक दो महादैत्यों को आज्ञा दी - 'हे चण्ड! और हे मुण्ड! तुम लोग बहुत बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ, उस देवी के बाल पकड़कर अथवा उसे बाँधकर शीघ्र यहाँ ले आओ। यदि इस प्रकार उसको लाने में संदेह हो तो युद्ध में सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों तथा समस्त आसुरी सेना का प्रयोग करके उसकी हत्या कर डालना। उस दुष्टा की हत्या होने तथा सिंह के भी मारे जाने पर उस अम्बिका को बाँधकर साथ ले शीघ्र ही लौट आना'।

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में 'धूम्रलोचन-वध' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ।

चौथा दिन

श्रीदुर्गा सप्तशती पाँचवा अध्याय हिंदी में
श्रीदुर्गा सप्तशती पाँचवा अध्याय हिंदी में

४. कूष्माण्डा

सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तप‌द्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तुमे ॥

माता दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द, हल्की हँसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कूष्माण्डा पड़ा। नवरात्रों में चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन "अनाहज" चक्र में स्थित होता है। अतः पवित्र मन से पूजा-उपासना के कार्य में लगाना चाहिए। माँ की उपासना मनुष्य को स्वभाविक रूप से भवसागर से पार उतरने के लिए सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। माता कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधिव्याधियों से विमुक्त करके उसे सुख समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है। अतः अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को कुष्माण्डा की उपासना में हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

श्रीदुर्गा सप्तशती पाँचवा अध्याय

देवी की स्तुति-अम्बिका के रूप की प्रशंसा

ऋषि कहते हैं - पूर्वकाल में शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के घमंड में आकर शचीपति इन्द्र के हाथ से तीनों लोकों का राज्य और यज्ञभाग छीन लिये । वे ही दोनों सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम और वरुण के अधिकार का भी उपयोग करने लगे। वायु और अग्निका कार्य भी वे ही करने लगे। उन दोनों ने सब देवताओं को अपमानित, राज्यभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्ग से निकाल दिया। उन दोनों महान् असुरों से तिरस्कृत देवताओं ने अपराजिता देवी का स्मरण किया और सोचा - 'जगदम्बा ने हम लोगों को वर दिया था कि आपत्ति काल में स्मरण करने पर मैं तुम्हारी सब आपत्तियों का तत्काल नाश कर दूँगी' । यह विचारकर देवता गिरिराज हिमालय पर गये और वहाँ भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे ।

देवता बोले - देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हम लोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते। रौद्रा को नमस्कार है। नित्या, गौरी एवं धात्री को बारम्बार नमस्कार है ज्योत्स्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है। शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। नैर्ऋती (राक्षसों की लक्ष्मी), राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी) - स्वरूपा आप जगदम्बा को बार-बार नमस्कार है। दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकटसे पार उतारनेवाली), सारा (सबकी सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवी को सर्वदा नमस्कार है। 

अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवी को हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है। जगत् की आधारभूता कृति देवी को बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में विष्णुमाया के नाम से कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में निद्रारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में क्षुधारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में छायारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में शक्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में तृष्णारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में क्षान्ति- (क्षमा-) रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में जातिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। 

जो देवी सब प्राणियों में लज्जारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में शान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में कान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मीरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में वृत्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में स्मृतिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। 

जो देवी सब प्राणियों में दयारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में तुष्टिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में मातारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में भ्रान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो जीवों के इन्द्रियवर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं, उन व्याप्तिदेवी को बारम्बार नमस्कार है। जो देवी चैतन्यरूप से इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। 

पूर्वकालमें अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले। उद्दण्ड दैत्यों से सताये हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जाने पर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें।

ऋषि कहते हैं - राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी गङ्गाजी के जल में स्नान करने के लिये वहाँ आयीं। उन सुन्दर भौंहों वाली भगवती ने देवताओं से पूछा - 'आप लोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं?' तब उन्हीं के शरीर कोश से प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं - 'शुम्भ दैत्य से तिरस्कृत और युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हैं'। पार्वतीजी के शरीर कोश से अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिये वे समस्त लोकों में 'कौशिकी' कही जाती हैं। कौशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वती देवी का शरीर काले रंग का हो गया, अतः वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से विख्यात हुईं । 

तदनन्तर शुम्भ-निशुम्भ के भृत्य चण्ड-मुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करने वाली अम्बिका देवी को देखा। फिर वे शुम्भ के पास जाकर बोले- 'महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्त्री है, जो अपनी दिव्य कान्ति से हिमालय को प्रकाशित कर रही है'। वैसा उत्तम रूप कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा। असुरेश्वर! पता लगाइये, वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये। स्त्रियों में तो वह रत्न है, उसका प्रत्येक अङ्ग बहुत ही सुन्दर है। तथा वह अपने श्रीअङ्गों की प्रभा से सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैला रही है। दैत्यराज! अभी वह हिमालय पर ही मौजूद है, आप उसे देख सकते हैं। प्रभो! तीनों लोकों में मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं, वे सब इस समय आपके घर में शोभा पाते हैं। हाथियों में रत्नभूत ऐरावत, यह पारिजात का वृक्ष और यह उच्चैःश्रवा घोड़ा - यह सब आपने इन्द्र से ले लिया है। 

हंसों से जुता हुआ यह विमान भी आपके आँगन में शोभा पाता है। यह रत्नभूत अद्भुत विमान, जो पहले ब्रह्माजी के पास था, अब आपके यहाँ लाया गया है। यह महापद्म नामक निधि आप कुबेर से छीन लाये हैं। समुद्र ने भी आपको किञ्जल्किनी नामकी माला भेंट की है, जो केसरों से सुशोभित है और जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं। सुवर्ण की वर्षा करने वाला वरुण का छत्र भी आपके घर में शोभा पाता है तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजापति के अधिकार में था, अब आपके पास मौजूद है। 

दैत्येश्वर! मृत्यु की उत्क्रान्तिदा नामवाली शक्ति भी आपने छीन ली है तथा वरुण का पाश और समुद्र में होने वाले सब प्रकार के रत्न आपके भाई निशुम्भ के अधिकार में हैं। अग्नि ने भी स्वतः शुद्ध किये हुए दो वस्त्र आपकी सेवा में अर्पित किये हैं। दैत्यराज! इस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिये हैं। फिर जो यह स्त्रियों में रत्नरूप कल्याणमयी देवी है, इसे आप क्यों नहीं अपने अधिकार में कर लेते?

ऋषि कहते हैं - चण्ड-मुण्डका यह वचन सुनकर शुम्भ ने महादैत्य सुग्रीव को दूत बनाकर देवी के पास भेजा और कहा - 'तुम मेरी आज्ञा से उसके सामने ये-ये बातें कहना और ऐसा उपाय करना जिससे प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहाँ आ जाय'। वह दूत पर्वत के अत्यन्त रमणीय प्रदेश में जहाँ देवी मौजूद थीं, गया और मधुर वाणी में कोमल वचन बोला ।

दूत बोला - देवि! दैत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकों के परमेश्वर हैं। मैं उन्हीं का भेजा हुआ दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ। उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वर से मानते हैं। कोई उसका उल्लङ्घन नहीं कर सकता। वे सम्पूर्ण देवताओं को परास्त कर चुके हैं। उन्होंने तुम्हारे लिये जो सन्देश दिया है, उसे सुनो। 'सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे अधिकार में है। देवता भी मेरी आज्ञा के अधीन चलते हैं। सम्पूर्ण यज्ञों के भागों को मैं ही पृथक्-पृथक् भोगता हूँ। तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं, वे सब मेरे अधिकार में हैं। देवराज इन्द्र का वाहन ऐरावत, जो हाथियों में रत्न के समान है, मैंने छीन लिया है। क्षीरसागर का मन्थन करने से जो अश्व रत्न उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताओं ने मेरे पैरों पर पड़कर समर्पित किया है। सुन्दरी! उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ देवताओं, गन्धर्वों और नागों के पास थे, वे सब मेरे ही पास आ गये हैं। देवि! हमलोग तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानते हैं, अतः तुम हमारे पास आ जाओ; क्योंकि रत्नों का उपभोग करने वाले हम ही हैं। चञ्चल कटाक्षों वाली सुन्दरी! तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाओ; क्योंकि तुम रत्नस्वरूपा हो। मेरा वरण करने से तुम्हें तुलना रहित महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी। अपनी बुद्धि से यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाओ'।

ऋषि कहते हैं - दूत के यों कहने पर कल्याणमयी भगवती दुर्गा देवी, जो इस जगत् को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीर भाव से मुसकरायीं और इस प्रकार बोलीं -

देवी ने कहा - दूत! तुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। शुम्भ तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी के समान पराक्रमी है। किंतु इस विषय में मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या कैसे करूँ? मैंने अपनी अल्प बुद्धि के कारण पहले से जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे सुनो - 'जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, जो मेरे अभिमान को चूर्ण कर देगा तथा संसार में जो मेरे समान बलवान् होगा, वही मेरा स्वामी होगा'। इसलिये शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं ही यहाँ पधारें और मुझे जीतकर शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्ब की क्या आवश्यकता है?

दूत बोला - देवि! तुम घमंड में भरी हो, मेरे सामने ऐसी बातें न करो। तीनों लोकों में कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ- निशुम्भ के सामने खड़ा हो सके। देवि! अन्य दैत्यों के सामने भी सारे देवता युद्ध में नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो। जिन शुम्भ आदि दैत्यों के सामने इन्द्र आदि सब देवता भी युद्ध में खड़े नहीं हुए, उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाओगी। इसलिये तुम मेरे ही कहने से शुम्भ निशुम्भ के पास चली चलो। ऐसा करने से तुम्हारे गौरव की रक्षा होगी; अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा ।

देवी ने कहा - तुम्हारा कहना ठीक है, शुम्भ बलवान् हैं और निशुम्भ भी बड़े पराक्रमी हैं; किंतु क्या करूँ? मैंने पहले बिना सोचे-समझे प्रतिज्ञा कर ली है। अतः अब तुम जाओ; मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब दैत्यराज से आदरपूर्वक कहना। फिर वे जो उचित जान पड़े, करें।

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में 'देवी-दूत-संवाद' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।

श्रीदुर्गा सप्तशती चौथा अध्याय

श्रीदुर्गा सप्तशती चौथा अध्याय हिंदी में
श्रीदुर्गा सप्तशती चौथा अध्याय हिंदी में

इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति

सिद्धि की इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओर से घेरे रहते हैं, उन 'जया' नामवाली दुर्गा देवी का ध्यान करे। उनके श्रीअङ्गों की आभा काले मेघ के समान श्याम है। वे अपने कटाक्षों से शत्रुसमूह को भय प्रदान करती हैं। उनके मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की रेखा शोभा पाती है। वे अपने हाथों में शङ्ख, चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे सिंह के कंधे पर चढ़ी हुई हैं और अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण कर रही हैं।

ऋषि कहते हैं - अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य-सेनाके देवी के हाथ से मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता प्रणाम के लिये गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गा का उत्तम वचनों द्वारा स्तवन करने लगे।

उस समय उनके सुन्दर अङ्गों में अत्यन्त हर्ष के कारण रोमाञ्च हो आया था। देवता बोले - 'सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप हैं तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत्‌ को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हम लोगों का कल्याण करें।

जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत का पालन एवं अशुभ भयका नाश करने का विचार करें। जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मी रूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रता रूप से, शुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धा रूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये।

देवि! आपके इस अचिन्त्य रूप का, असुरों का नाश करने वाले भारी पराक्रम का तथा समस्त देवताओं और दैत्यों के समक्ष युद्ध में प्रकट किये हुए आपके अद्भुत चरित्रों का हम किस प्रकार वर्णन करें।

आप सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति में कारण हैं। आप में सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण - ये तीनों गुण मौजूद हैं; तो भी दोषों के साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता। भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है; क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं।

देवि! सम्पूर्ण यज्ञों में जिसके उच्चारण से सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह स्वाहा आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप पितरों की भी तृप्तिका कारण हैं, अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं। देवि! जो मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, अचिन्त्य महाव्रत स्वरूपा है, समस्त दोषों से रहित, जितेन्द्रिय, तत्त्व को ही सार वस्तु मानने वाले तथा मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं वह भगवती परा विद्या आप ही हैं। आप शब्दस्वरूपा हैं, अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठ से युक्त सामवेद का भी आधार आप ही हैं। आप देवी, त्रयी (तीनों वेद) और भगवती (छहों ऐश्वर्योंसे युक्त) हैं। इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिये आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका) - के रूप में प्रकट हुई हैं। आप सम्पूर्ण जगत की घोर पीड़ा का नाश करने वाली हैं। देवि! जिससे समस्त शास्त्रों के सार का ज्ञान होता है, वह मेधाशक्ति आप ही हैं। दुर्गम भव सागर से पार उतारने वाली नौकारूप दुर्गा देवी भी आप ही हैं। आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है। कैटभ के शत्रु भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में एकमात्र निवास करने वाली भगवती लक्ष्मी तथा भगवान् चन्द्रशेखर द्वारा सम्मानित गौरी देवी भी आप ही हैं।

आपका मुख मन्द मुसकान से सुशोभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रमा के बिम्बका अनुकरण करनेवाला और उत्तम सुवर्ण की मनोहर कान्ति से कमनीय है; तो भी उसे देखकर महिषासुर को क्रोध हुआ और सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया, यह बड़े आश्चर्यकी बात है। 

देवि! वही मुख जब क्रोध से युक्त होने पर उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति लाल और तनी हुई भौंहों के कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुर प्राण तुरंत नहीं निकल गये, यह उससे भी बढ़कर आश्चर्य की बात है; क्योंकि क्रोधमें भरे हुए यमराज को देखकर भला कौन जीवित रह सकता है? 

देवि! आप प्रसन्न हों। परमात्मस्वरूपा आपके प्रसन्न होने पर जगत् का अभ्युदय होता है और क्रोध में भर जाने पर आप तत्काल ही कितने कुलों का सर्वनाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभव में आयी है; क्योंकि महिषासुर की यह विशाल सेना क्षण भर में आपके कोप से नष्ट हो गयी है। सदा अभ्युदय प्रदान करने वाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं। 

देवि! आपकी ही कृपा से पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सदा सब प्रकार के धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभाव से स्वर्ग लोक में जाता है; इसलिये आप तीनों लोकों में निश्चय ही मनोवाञ्छित फल देने वाली हैं। 

माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो। 

देवि! इन राक्षसों के मारने से संसार को सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकाल तक नरक में रहने के लिये भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राम में मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्गलोक में जायँ - निश्चय ही यही सोचकर आप शत्रुओं का वध करती हैं। आप शत्रुओं पर शस्त्रों का प्रहार क्यों करती हैं? समस्त असुरों को दृष्टिपात मात्र से ही भस्म क्यों नहीं कर देतीं? इसमें एक रहस्य है। ये शत्रु भी हमारे शस्त्रों से पवित्र होकर उत्तम लोकों में जायँ - इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है।

हे देवि! खड्ग के तेजःपुञ्ज की भयङ्कर दीप्ति से तथा आपके त्रिशूल के अग्रभाग की घनीभूत प्रभा से चौंधियाकर जो असुरों की आँखें फूट नहीं गयीं, उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियों से युक्त चन्द्रमा के समान आनन्द प्रदान करने वाले आपके इस सुन्दर मुख का दर्शन करते थे। 

देवि! आपका शील दुराचारियों के बुरे बर्ताव को दूर करने वाला है। साथ ही यह रूप ऐसा है, जो कभी चिन्तन में भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरों से तुलना भी नहीं हो सकती; तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्यों का भी नाश करने वाला है, जो कभी देवताओं के पराक्रम को भी नष्ट कर चुके थे। इस प्रकार आपने शत्रुओं पर भी अपनी दया ही प्रकट की है। 

वरदायिनी देवि! आपके इस पराक्रम की किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओं को भय देने वाला एवं अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है? हृदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता - ये दोनों बातें तीनों लोकों के भीतर केवल आप में ही देखी गयी हैं। मातः! आपने शत्रुओं का नाश करके इस समस्त त्रिलोकी की रक्षा की है। उन शत्रुओं को भी युद्ध भूमि में मारकर स्वर्गलोक में पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्यों से प्राप्त होने वाले हम लोगों के भय को भी दूर कर दिया है, आपको हमारा नमस्कार है। 

देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हम लोगों की रक्षा करें। 

चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में आप हमारी रक्षा करें तथा ईश्वरि! अपने त्रिशूल को घुमाकर आप उत्तर दिशा में भी हमारी रक्षा करें। तीनों लोकों में आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयङ्कर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोक की रक्षा करें। 

अम्बिके! आपके कर-पल्लवों में शोभा पाने वाले खड्ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों, उन सबके द्वारा आप सब ओर से हम लोगों की रक्षा करें। ऋषि कहते हैं - इस प्रकार जब देवताओंने जगन्माता दुर्गाकी स्तुति की और नन्दनवनके दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदिके द्वारा उनका पूजन किया, फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपोंकी सुगन्ध निवेदन की, तब देवीने प्रसन्नवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओं से कहा - देवी बोलीं - देवताओ! तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तुकी अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो।

देवता बोले - भगवती ने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी, अब कुछ भी बाकी नहीं है क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया। महेश्वरि! इतने पर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं तो हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हम लोगों के महान् संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्नमुखी अम्बिके! जो मनुष्य इन स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्ति को भी बढ़ानेके लिये आप सदा हम पर प्रसन्न रहें ।

ऋषि कहते हैं - राजन्! देवताओं ने जब अपने तथा जगत् के कल्याण के लिये भद्रकाली देवी को इस प्रकार प्रसन्न किया, तब वे 'तथास्तु' कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं। 

भूपाल! इस प्रकार पूर्वकाल में तीनों लोकों का हित चाहने वाली देवी जिस प्रकार देवताओं के शरीरों से प्रकट हुई थीं, वह सब कथा मैंने कह सुनायी। अब पुनः देवताओं का उपकार करने वाली वे देवी दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भ का वध करने एवं सब लोकों की रक्षा करने के लिये गौरीदेवी के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई थीं, वह सब प्रसङ्ग मेरे मुँह से सुनो। मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ।

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में 'शक्रादिस्तुति' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ।

श्रीदुर्गा सप्तशती तीसरा अध्याय

श्रीदुर्गा सप्तशती तीसरा अध्याय हिंदी में
श्रीदुर्गा सप्तशती तीसरा अध्याय हिंदी में

३. चन्द्रघण्टा 

पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महां चन्द्रघण्टेति विश्रुता ॥

माँ दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम "चन्द्रघण्टा" है। नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन आराधना की जाती है। इनका स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है। इसी कारण इस देवी का नाम चन्द्रघण्टा पड़ा। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनका वाहन सिंह है। हमें चाहिए कि हम मन, वचन, कर्म एवं शरीर से शुद्ध होकर विधि-विधान के अनुसार माँ चन्द्रघण्टा की शरण लेकर उनकी उपासना, आराधना में तत्पर हों। इनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से छूटकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।

तीसरा अध्याय

(महिषासुर का वध)

जगदम्बा के श्रीअङ्गो की कान्ति उदयकाल के सहस्रों सूर्यों के समान है। वे लाल रँग की रेशमी साड़ी पहने हुये हैं। उनके गले में मुण्डमाला शोभा पा रही है। दोनों स्तनों पर रक्त चन्दन का लेप लगा है। वे अपने कर-कमलों में जपमालिका, विद्या और अभय तथा वर नामक मुद्राएँ धारण किये हुये हैं। तीन नेत्रों में सुशोभित मुखारविन्द की बड़ी शोभा हो रही है। उनके मस्तक पर चन्द्रमा के साथ ही रत्नमय मुकुट बँधा है तथा वे कमल के आसन पर विराजमान हैं। ऐसी देवी को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।

ऋषि कहते हैं - दैत्यों की सेना को इस प्रकार तहस-नहस होते देख महादैत्य सेनापति चिक्षुर क्रोध में भरकर अम्बिका देवी से युद्ध करने के लिये आगे बढ़ा। वह असुर रणभूमि में देवी के ऊपर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगा, जैसे बादल मेरुगिरि के शिखरपर पानी की धार बरसा रहा हो। तब देवी ने अपने बाणों से उसके बाण समूह को अनायास ही काटकर उसके घोड़ों और सारथि को भी मार डाला। साथ ही उसके धनुष तथा अत्यन्त ऊँची ध्वजा को भी तत्काल काट गिराया। धनुष कट जाने पर उसके अङ्गों को अपने बाणों से बींध डाला। 

धनुष, रथ, घोड़े और सारथि के नष्ट हो जाने पर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की ओर दौड़ा । उसने तीखी धारवाली तलवार से सिंह के मस्तक पर चोट करके देवी की भी बायीं भुजा में बड़े वेग से प्रहार किया । राजन्! देवी की बाँह पर पहुँचते ही वह तलवार टूट गयी, फिर तो क्रोध से लाल आँखें करके उस राक्षस ने शूल हाथ में लिया। और उसे उस महादैत्य ने भगवती भद्रकाली के ऊपर चलाया। वह शूल आकाश से गिरते हुये सूर्यमण्डल की भाँति अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा । उस शूल को अपनी ओर आते देख देवी ने भी शूल का प्रहार किया। उससे राक्षस के शूल के सैकड़ों टुकड़े हो गये, साथ ही महादैत्य चिक्षुर की भी धज्ज्जियाँ उड़ गयीं। वह प्राणों से हाथ धो बैठा।

महिषासुर के सेनापति उस महापराक्रमी चिक्षुर के मारे जाने पर देवताओं को पीड़ा देने वाला चामर हाथी पर चढ़कर आया। उसने भी देवी के ऊपर शक्ति का प्रहार किया, किन्तु जगदम्बा ने उसे अपने हुँकार से ही आहत एवं निष्प्रभ करके तत्काल पृथ्वीपर गिरा दिया। शक्ति टूटकर गिरी हुयी देख चामर को बड़ा क्रोध हुआ। अब उसने शूल चलाया, किन्तु देवी ने उसे भी अपने बाणों द्वारा काट डाला। इतने में ही देवी का सिंह उछलकर हाथी के मस्तक पर चढ़ बैठा और उस दैत्य के साथ खूब जोर लगाकर बाहुयुद्ध करने लगा। वे दोनों लड़ते-लड़ते हाथी से पृथ्वी पर आ गये और अत्यन्त क्रोध मे भरकर एक-दूसरे पर बड़े भयङ्कर प्रहार करते हुये लड़ने लगे । तदनन्तर सिंह बड़े वेग से आकाश की ओर उछला और उधर से गिरते समय उसने पंजों की मार से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया। 

इसी प्रकार उदग्र भी शिला और वक्ष आदि की मार खाकर रणभूमि में देवी के हाथ से मारा गया तथा कराल भी दाँतों, मुक्कों और थप्पड़ों की चोट से धराशयी हो गया। क्रोध में भरी हुयी देवी ने गदा की चोट से उद्धत का कचूमर निकाल डाला। भिन्दिपाल से वाष्कल को तथा बाणों से ताम्र और अन्धक को मौत के घाट उतार दिया। तीन नेत्रों वाली परमेश्वरी ने त्रिशूल से उग्रास्य, उग्रवीर्य तथा महाहनु नामक दैत्यों को मार डाला। तलवार की चोट से विडाल के मस्तक को धड़ से काट गिराया। दुर्धर और दुर्मुख - इन दोनों को भी अपने बाणों से यमलोक भेज दिया।

इस प्रकार अपनी सेना का संहार होता देख महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण करके देवी के गणों को त्रास देना आरम्भ किया। किन्हीं को थूथुन से मारकर, किन्हीं के ऊपर खुरों का प्रहार करके, किन्हीं-किन्हीं को पूँछ से चोट पहुँचाकर, कुछ को सींगों से विदीर्ण करके, कुछ गणों को वेग से, किन्हीं को सिंहनाद से, कुछ को चक्कर देकर और कितनों को निःश्वास- वायु के झोंके से धराशयी कर दिया। इस प्रकार गणों की सेना को गिराकर वह असुर महादेवी के सिंह को मारने के लिये झपटा। इससे जगदम्बा को बड़ाक्रोध हुआ। उधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोध में भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा तथा अपने सींगों से ऊँचे-ऊँचे पर्वतों को उठाकर फेंकने और गर्जने लगा। 

उसके वेग से चक्कर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी। उसकी पूँछ से टकराकर समुद्र सब ओर से धरती को डुबोने लगा। हिलते हुये सींगों के आघात से विदीर्ण होकर बादलों के टुकड़े-टुकड़े हो गये। उसके श्वास की प्रचण्ड वायु के वेग से उड़े हुये सैकड़ों पर्वत आकाश से गिरने लगे। इस प्रकार क्रोध में भरे हुये उस महादैत्य को अपनी ओर आते देख चण्डिका ने उसका वध करने के लिये महान् क्रोध किया। 

उन्होंने पाश फेंककर उस महान् असुर को बाँध लिया। उस महासंग्राम में बँध जाने पर उसने भैंसे का रूप त्याग दिया। और तत्काल सिंह के रूप में वह प्रकट हो गया। उस अवस्था में जगदम्बा ज्यों ही उसका मस्तक काटने के लिये उद्यत हुयीं, त्यों ही वह खड्गधारी पुरुष के रूप में दिखायी देने लगा। तब देवी ने तुरन्त ही बाणों की वर्षा करके ढाल और तलवार के साथ उस पुरुष को बींध डाला। इतने में ही वह महान् गजराज के रूप में परिणत हो गया। तथा अपनी सूँड से देवी के विशाल सिंह को खींचने और गर्जने लगा। खींचते समय देवी ने तलवार से उसकी सूँड काट डाली। तब उस महादैत्य ने पुनः भैंसे का शरीर धारण कर लिया और पहले की ही भाँति चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को व्याकुल करने लगा। 

तब क्रोध में भरी हुयी जगन्माता चण्डिका बारम्बार उत्तम मधु का पान करने और लाल आँखें करके हँसने लगीं। उधर वह बल और पराक्रम के मद से उन्मत्त हुआ राक्षस गर्जने लगा और अपने सींगों से चण्डी के ऊपर पर्वतों को फेंकने लगा। उस समय देवी अपने बाणों के समूहों से उसके फेंके हुये पर्वतों को चूर्ण करती हुयी बोलीं। बोलते समय उनका मुख मधु के मद से लाल हो रहा था और वाणी लड़खड़ा रही थी। देवी ने कहा - ओ मूढ़! मैं जब तक मधु पीती हूँ, तब तक तू क्षण भर के लिये खूब गर्ज ले। मेरे हाथ से यहीं तेरी मृत्यु हो जाने पर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे।

ऋषि कहते हैं - यों कहकर देवी उछलीं और उस महादैत्य के ऊपर चढ़ गयीं। फिर अपने पैर से उसे दबाकर उन्होंने शूल से उसके कण्ठ में आघात किया। उनके पैर से दबा होने पर भी महिषासुर अपने मुखसे [दूसरे रूप में बाहर होने लगा] अभी आधे शरीर से ही वह बाहर निकलने पाया थी कि देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया। आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा। तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया फिर तो हाहाकार करती हुयी दैत्यों की सारी सेना भाग गयी तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये। देवताओं ने दिव्य महर्षियों के साथ दुर्गा देवी का स्तवन किया। गन्धर्वराज गाने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं।

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में 'महिषासुरवध' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ।

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